डार्विन का "विकास सिद्धान्त" बतलाता है
जो शारीरिक बदलाव जीवन के लिये
महत्वपूर्ण व आवश्यक हैं
उन्हें प्रकृति द्वारा
आने वाली नसलों के लिये
अपने आप सहेजा जाता है
शायद ये "मुखौटा"
मैंने अपने पूर्वजों से पाया है
क्योंकि इसे मैने स्वंय नहीं बनाया है
जैसे सर्दी के लिये रजाई लिहाफ़
मैले तकिये के लिये साफ़ गिलाफ़
साधारण चेहरे को उत्कर्ष बनाते प्रसाधन
बुराइयों को छुपाते बल और धन
क्या हुआ अगर ओढ़ लेता हूं "मुखौटा"
यदा कदा मैं भी
अनजाने लोगों का प्यार सत्कार
अपनों के दिल में उठती दीवार
और गले मिल भोंकते जो कटार
उन सब के दिलों का मर्म जानने के लिये
क्या है ऐसे में मेरा धर्म जानने के लिये
जैसे को तैसा
या
नेकी कर कुएँ में डाल
निर्णय करने में
मुखौटा बड़ा काम आता है
अपनी छुपा कर
औरों के दिल की थाह पाता है...
इसीलिये इसे छोड़ नहीं पाता हूं
कुछ पाने की चाह का मूल्य
अपनी पहचान गंवा कर चुकाता हूं
हां, यदा-कदा मैं भी मुखौटा लगाता हूं
jankari deti badhiya kavita
ReplyDeleteaabhar
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteजीवन के सत्य को कहती अच्छी रचना ...सब मुखौटे ही लगाए रहते हैं
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना .. बाधाई
ReplyDeleteआज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ आकर बहुत अच्छा लगा .
कभी समय मिले तोhttp://shiva12877.blogspot.com ब्लॉग पर भी आप अपने एक नज़र डालें . धन्यवाद् .
Well Said Sir....
ReplyDeleteवाह मोहिन्द्र भाई, बहुत ही बेजोड़ प्रस्तुति रही.
ReplyDeleteहम मुखौटा लगा कर मिलेंगे तो मुखौटों से ही मिलना होगा कभी उतार के मिलें तो जिंदगी से मुलाकात होगी !
ReplyDeleteजीवन दर्शन से परिपूर्ण सुंदर रचना के लिए बधाई।
ReplyDeleteवाह...मोहिंदर जी... जीवन के यथार्थ को सामने रख दिया आपने..
ReplyDeleteकभी हमने भी ऐसा ही कुछ लिखने की कोशिश की थी..
'सवाल महज नकाब का होता, तो कब का उतर गया होता.. अब तो ये चेहरा खुद ही नकाब है मेरा... '
मुखौटे के माध्यम से जीवन की सच्चाई बयान करती कविता हेतु बधाई।
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