मिट्टी की फितरत क्या कहिए
हर एक को खुद में मिला लेती
अपना वजूद मिटा कर कर भी
जग चाहा रूप है पा लेती
सांचों में ढले तो ये मिट्टी
बुलंद इमारत बन जाये
गर बीजों को समेटे खुद में तो
दुनिया गुलशन बन जाये
फनकार के हाथों में आकर
दिलकश मूरत में ढलती है
कुम्हार के हाथों से ढलकर
दिवाली का दिया बन जलती है
तुफानों से अगर मिल जाये तो
सूरज को भी ढक लेती
किसानों के पसीने से मिलकर
लहलहाती है बनकर खेती
अपनों के लिये, गैरों के लिये
इन्सान के लिये, पेडों के लेये
एक सा मुकाम ये रखती है
जिन्दों को खिलाये गोदी में
मुर्दों को आंचल में ढक लेती है
2 comments:
मिहिन्दर कुमार जी बहुत सुन्दर कविता है मिट्टी से जुडी मिट्टी में मिल जाने की बात बहुत सुन्दर है सरल और सहज भाव सभी के समझ की परीधि में आ जाती है बधाई स्वाकारे
आप से गुजारिश है आप हम्से संपर्क बनाए रखिए जब -तब हमारे चिट्ठे को देख लीजिए धन्यवाद
मोहिन्दर जी,
संवेदना मात्र कहने की ही आपमें नहीं है वो अवश्य विद्यमान है…!!सुंदर कविता का सृजन किया है…।
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