नितांत एकांत


मैं चाहता हूं
एक नितांत एकांत
कोई न हो जहां
उघाड सकूं जहां मैं
बीती यादों की सीवन
शायद कुछ मिल जाये
कोई घाव, कोई प्रेरणा
कोई कसक, कोई सुनहला स्वप्न
बदल जाये जिससे
मेरा भी जीवन
मैं चाहता हूं
एक नितांत एकांत
कोई न हो जहां

4 comments:

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

यही एकान्त तो एक लग़्ज़री है कवि हृदयों के लिए.

अलेग्ज़ेंडर पोप ने अपनी

अमर कविता 'Solitude' में और ग़ालिब ने भी अपनी शायरी में कुछ ऐसा ही एकांत
चाहा है.


और यह बीती यादों की सीवन उघाड़ना भी एक सुन्दर मुहावरा बन पड़ा है.


अच्छा लगता है आपके यहाँ आना.

seema gupta said...

मैं चाहता हूं
एक नितांत एकांत
कोई न हो जहां
"" एकांत होकर भी एकांत नही मिलता क्योंकि उस एकांत मे भी अपना माझी साथ होता है.......और एकांत की तलाश कभी खत्म नही होती.....बेहद प्रभावशाली रचना.."

Regards

रंजू भाटिया said...

मैं चाहता हूं
एक नितांत एकांत
कविता तो अच्छी है ..पर आप को क्या हुआ ..आप तो अकेले रहने वालों में नही थे :)

Alpana Verma said...

aap ka blog bahut sundar hai.

akant ki apni mahtta hai..ye ek kavi ke alawa aur behtar kaun jaan sakta hai.
bahut sundar kavita hai