चांद अकेला


रात की बेला
मैं अकेला
चांद अकेला
रात की बेला

चंद्र्मोली बन जिस ने हरा
शिव के विषपान का ताप
ओस की बूंदे बन हर रात झरे
उसका मन संताप

किस बिछडे को ढूंढे है जाने
सांझ ढले से भौर तलक
पूर्व पश्चिम घूम घूम कर
बिना झपके एक पलक

कितनी तपिश है इसके मन में
मै भी हूं इसी उलझन में
पानी से कब ये विरह की आग बुझी है
डूबते देखा चांद को झील के तल में

रात की बेला
मैं अकेला
चांद अकेला
रात की बेला


मोहिन्दर

3 comments:

Divine India said...

अत्यंत संजीदा…भाव जैसे हृदय के अहसासों में कुछ लिखना चाह रहा हो…धन्यवाद स्वीकारें!!

रंजू भाटिया said...

bahut khoob ..likha hai aapne ...

tanah chaand bhi na jaane tadpata hai kis ke liye .
tabhi toh laakho sitaaro mein bhi kitana tanaha sa nazar aata hai!!


ranju

Udan Tashtari said...

अच्छा लिख रहे हो, लिखते रहो. आपका तेवर अनूठा है. इसे बनाये रखना:)