मानव कच्ची माटी का घडा, नितदिन इक नयी आस
घट तक भर जाने पर भी बुझे न इस मन की प्यास
सुख दुख से परहेज क्या, यह हैं जीवन के दो स्वाद
सुख बांटे से हो सौ-गुना, और दुख बांटे से हो आध
तेरा मेरा जग में कछु नहीं बस विधि ही खेल खिलाये
जब मिले तो छ्प्पर फ़ाडी के और खाल खींच ले जाये
जोगी बनना नहीं खेल है सब छोड छाड लो धूनि रमाय
इस जन्म में फ़िरे जो मांगता वो अगला जन्म गंवाये
वा संग ही प्रीत लगाईये जो अन्त तक न छोडे साथ
"मोह" ऐसा जग में बस एक है हरि नाम या हरि नाथ
5 comments:
आप तो मधुर वाणी के स्वामी हैम. कृप्या गा कर सुनायें. :)
चिंतन तो गहरा है साथ ही कबीर की भी याद आगई… बहुत अच्छा रहा यह प्रयास…।
आपकी लेखनी का एक और रूप - दोहे।
बहुत ही पसंद आए हैं।
सुख दुख से परहेज क्या, यह हैं जीवन के दो स्वाद
सुख बांटे से हो सौ-गुना, और दुख बांटे से हो आध
बहुत बहुत बधाई।
dohe bade kargar vidha hain.isme gagar me sagar jaisee bhaavhara sametee ja saktee hai .achha prayaas hai aur saadhate rahen ek din aap ke dohon mein hathodon jaisee prahar shakti aegi aur aaap buraee par prahar kar sakenge.
सुख दुख से परहेज क्या, यह हैं जीवन के दो स्वाद
सुख बांटे से हो सौ-गुना, और दुख बांटे से हो आध
पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब
बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको
और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
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