चला जब मैं, मेरे साथ था ख्वाव इक फ़ूल सा
आंधियों की हालात से पंखुडी पंखुडी बिखर गया
वक्त की भट्टी से गुजर ख्वाब पत्थर के हो गये
जो आईने-दिल का अक्स था राख से वो घिर गया
राहे-गुजर सहरा से थी भला चांदनी भी क्या करे
कुछ पल की रात थी फ़िर चांद जाने किधर गया
अफ़सोस मेरे नसीब से वक्ते-रफ़्तार बहुत तेज थी
उबरा जब तक हादसों से, वक्ते-उमरां गुजर गया
ऐसा नही कि राह में "मोह" को दोस्त नही मिले
मोड आते गये, कोई इधर गया, कोई उधर गया
3 comments:
बढ़िया है मोह साहब. :) लिखते रहें.
चलो अब दिख रहा कोई तखल्लुस शेर में उनके
वगरना सोचते रहते लिखा है मजमुआ किसने
बहुत ही सुन्दर गज़ल लिखी है आपने । बधाई
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