हम तुम



हम तुम
रात
खिडकी-कांच, चांद-रोशनी और
एक झिझक सी
कनखी-चितवन, होंठ-कंपन और
एक तपन सी
करवट-सिलवट, मौन-चुभन और
एक उलझन सी
अतीत-अश्रू, भविष्य-अनिश्चित और
एक आशा सी
संदेह-प्रश्न, भय-चिन्तन और
एक किरण सी
चार पहर
भोर
हम तुम

7 comments:

SahityaShilpi said...

क्या बात है, मोहिन्दर जी! आजकल तो लगता है आपने नये-नये प्रयोगों पर खासा ज़ोर दे रखा है. एक और खूबसूरत रचना के लिये बधाई!

-अजय यादव
http://ajayyadavace.blogspot.com/
http://merekavimitra.blogspot.com/

पारुल "पुखराज" said...

बहुत खूब्……भाव अच्छे लगे

Udan Tashtari said...

अनूठा प्रयोग-आनन्द आया नया अंदाज देख कर. बधाई.

शोभा said...

मोहिन्दर जी
लाजवाब कविता । प्रेम के सूक्ष्म मनोभावों को इतना सुन्दर जामा पहनाया है आपने कि प्रशंसा के लिए
शब्द कम पड़ रहे हैं । एक-एक शब्द रस में डूबा हुआ है । अभी तक आपको एक शायर के रूप में
जाना था । एक कवि के रूप में आपका परिचय हर्षित करने वाला है ।
भाव और भाषा के इतने कुशल सम्मिश्रण के लिए बधाई ।

राकेश खंडेलवाल said...

सुन्दर प्रयोग है. मोहिन्दरजी.

रंजू भाटिया said...

बहुत दिनों के बाद यहाँ आना हुआ और आते ही पढ़ा बहुत कुछ नया और अदभुत बहुत ही सुंदर ..बहुत खूब मोहिंदर जी

Anonymous said...

bahut sundar