जब जन्म लिया था मैंने
मैं ऐसी तो न थी
मां की गोदी में थी जब तक
मैं बेटी ही तो थी
मालूम नहीं कब बीत गये
बचपन के वो पल-छिन
फिर आया यौवन और
सपनों से वो दिन
लोगों के घरों में लगा झाडू-बुहारी
घिस-घिस के बर्तन
गुजरी थी माँ की उमर ही सारी
वो रखती थी मुझको
दुनिया की बदनज़रों से बचा कर
पैबंद लगे कपड़ों में मुझ को छुपा कर
बापू को तो बस
अपनी बोतल थी प्यारी
फ़िक्र न था कि घर में हैं
तीन जवान बेटियां कुंवारी
पास का बनिया भी था पूरा छिछोरा
बेटी कहे और नज़रों से
देह टटोले मरा निगोड़ा
बातों ही बातों में कभी हाथ छुआ दे
फिर हंस के पीली बत्तीसी दिखा दे
हद कर दी उसने
एक दिन जब वो बोला
आ जा घर में मेरे
बन मेरी लुगाई
और सांभ ले मेरी रसोई
घर आ कर मैं कितना थी रोई
माँ खूब वाक़िफ़ थी
मेरे दिल की बातों से
मगर थक चुकी थी वो
लड़-लड़ के हालातों से
वो बोली, वो नरक बेहतर है
इस नरक से बच्ची
गंवा लड़कपन मैं बनी सुहागन
मगर भाग्य से भला
कौन जीत सका
उजड़ा मेरा सुहाग
एक फल था पका
जाते ही उसके सब की दृष्टि बदल गयी
अब न वो घर मेरा था
न ये घर मेरा
बिन मंजिल की राहें साथी
आगे पीछे घुप्प अन्धेरा
ऐसे में जिसने बांह को थामा
वो निकला
बदनाम गली का एक चितेरा
अब दिन हैं भारी
रातें काली
रोज़ चले सीने पर आरी
सपने रह गये टूट-टूट कर
प्रीत बह गयी फूट-फूट कर
कोई अरमान रहा न
अब इस दिल में
बनी एक खिलौना
दुनिया की महफ़िल में
कोई मुझे बताये
मुझसे क्या भूल हुई है
मन की पीड़ा अब शूल हई है
क्या मैं भूखी मर जाती
अस्मत को कैसे मैं ओढ़ती
शर्म को मैं कहां बिछाती
उजयारे में मुझसे वितृष्णा करने वाले
अंधियारे में खुद को कर दें मेरे हवाले
सचरित्रों का मैं बनी निवाला
अपनों ने दिया मुझे
अपने घर से
देशनिकाला
3 comments:
मोहिन्दर जी
बहुत ही यथार्थ परक रचना है। सच्चाई के बहुत निकट। मन भारी सा हो गया ।
कोई मुझे बताये
मुझसे क्या भूल हुई है
मन की पीड़ा अब शूल हई है
क्या मैं भूखी मर जाती
अस्मत को कैसे मैं ओढ़ती
शर्म को मैं कहां बिछाती
एक सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बधाई
क्या बात है बड़ी दर्द नाक काव्य-कथा है...
सुंदर सहज शब्दों के साथ बहुत ही भावुक चित्रण है।
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