मैँने चाहा जब भी उडना
नील गगन मेँ पँख पसार
शुष्क धरा पर ले आया
अन्त:करण मेरा हर बार
क्या वह मेरे हिस्से का अम्बर है
जिस पर मैँने डैने हैँ फैलाये
या पँख मेरे ये अपने हैँ
बन्दर बाँट मेँ जो मेरे हिस्से मेँ आये
कहीँ प्लेटेँ पकवानोँ की फिँकती
कहीँ भूख खडी कचरे के ढेरोँ पर
किस के हिस्से की कालिमा छा गई
इन उजले भौर सवेरोँ पर
निजी बँगलोँ मेँ तरण ताल जहाँ
लबालब भरे पडे हैँ मीठे पानी से
वहीँ सूखे नल पर भीड लगी है
प्रतीक्षा रत जल की रवानी मेँ
वाताअनुकुलित कमरोँ मेँ होती घुसफुस
सूरज की तपिश के बारे मेँ
धूप मेँ ही सुसताती मेहनत
फ़ुटपाथ और सडकोँ किनारोँ मेँ
नेताओँ के झुँड ने चर ली
हरियाली सारी मेहनत के खेतोँ की
अफसर शाही धूल चाटती
अँगूठा-छापोँ के बूटोँ की
खुली सँस्कृति विदेशी चैनल
साईवर कैफोँ की धूम मची
फोन कैमरा और मोबाईल
नग्न एम एम एस बनी एक कडी
हैलो हाय और मस्त धुनो पर
देश के भावी कर्णधार झूम रहे हैँ
टपके तो लपके हम यही सोच कर
कपट शिकारी घूम रहे हैँ
एक घूटन का साम्राज्य है
बहती नही जब कोई वयार
कैसे ऊडूँ मेँ नील गगन मेँ
बिँधे हुए पँखोँ से कैसे पाऊँ पार
2 comments:
behad sundar
"beautiful composition, nive poetry to read'
Regards
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