बायसे तकलीफ़ मगर है अजीज वो मुझको
जज्वा-ए-दिल है खुद से जुदा मैं कैसे करूं
अपने ख्वाबों की बदौलत मैं यहां तक पहुंचा
है गर एक टूट गया मैं भला काहे को डरूं
रात की चादर में हों चाहे लाख अंधेरे सिमटे
जुगनू बन के सही कोई कोना रोशन तो करूं
ओढ कर खोल कोई न जिया जायेगा मुझसे
क्यों न हालात से लड मौत मैं खुद की मरूं
कुछ तो करना है हाथ की लकीरों के मुताबिक
चाहता हूं कुछ एक रंग अपनी मर्जी के भरूं
10 comments:
बहुत खूब। आनंद आ गया, पढकर भी ,देखकर भी और सुनकर भी।
कुछ तो करना है हाथ की लकीरों के मुताबिक
चाहता हूं कुछ एक रंग अपनी मर्जी के भरूं
सच दिल खुश कर दिया।
कुछ तो करना है हाथ की लकीरों के मुताबिक
चाहता हूं कुछ एक रंग अपनी मर्जी के भरूं
बहुत सुन्दर बढ़िया लगा ..मेट्रो लाइफ फिल्म के गाने की याद आ गयी इसको पढ़ के .
mohindar ji badhiya gazal laye aap . accha laga padh kar.
क्या बात है मोहिन्दर भाई..बहुत बढ़िया.
मोहिन्दर भाई जी क्या आंदाज है, मजा आ गया गुबारा फ़ोड कर ओर फ़िर सुंदर सी कविता पढ कर.
धन्यवाद
mohinder ji
deri se aane ke liye maafi chahta hoon .tour par tha ..
aaj aapki bahut si rachnaayen padhi is blog par ,
is gazal me ye wali lines ne dil ko choo diya , kuch meri katha jaisi hai ..
कुछ तो करना है हाथ की लकीरों के मुताबिक
चाहता हूं कुछ एक रंग अपनी मर्जी के भरूं
dil se badhai ..
vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/
आपके तो इतने सारे ब्लाग हैं, समझ में नहीं आता किस पर कमेंट करुं, किसे छोड़ूं ! चलिए इसी बात पर एक शेर सुनिएः-
अपने ख्वाबों की बदौलत मैं यहां तक पहंुचा
अब अगर टूट गया एक, मैं काहे को डरुं ?
क्या बात है मोहिन्दर भाई...चमक गये हो, होली और गज़ल क्या कहने...
आपको व सारे परिवार को होली की मुबारकां जी...
बहुत सुंदर रचना ... होली की ढ़ेर सारी शुभकामनाएँ...
कुछ तो करना है हाथ की लकीरों के मुताबिक
चाहता हूं कुछ एक रंग अपनी मर्जी के भरूं।
सुन्दर शेर, हार्दिक बधाई।
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