क्या कोई द्वार खोलेगा



अन्तर्मन की गहराईयों में
अन्धकार से लिपटा
चेतना से परे
किसी किरण की चाह में
भटकता हूं मैं
क्या कोई द्वार खोलेगा

सर्वत्र शांति व्याप्त
कोई कोलाहल नहीं
न पथ, न पथदर्शक
धैर्य क्यों न डोलेगा

मन से जिन्हें जोडा था
थाम हाथ, रक्तिम हो
रम गये किरचन बन
नस नस में वही
व्यथा को बढाते हैं
लहु क्यों न खोलेगा

किस तरह उतराऊं
इस अंधकूप में
किस तरह बाहर आऊं
फ़िर उजली धूप में
या चितकार करूं
भीतर भीतर
क्या कोई सुन पायेगा
और मेरे हित की बोलेगा

किसी किरण की चाह में
भटकता हूं मैं.

1 comment:

रंजना said...

Waah !!!! Bhavbhari bahut bahut sundar rachna...