मैं नहीं जानता कि इसे कैसे रोका जाये, क्यूं रोका जाये और कौन रोके.... परन्तु इतना अवश्य है कि हम सब इस सत्य को जाने और कोई सही निर्णय लें.
हयाव बुरका नकाब शायला चादर
मुस्लिम महिलाओं को ऊपर दिये पांच में से किसी एक तरह की पर्दादारी से दो-चार होना पडता है.
"हयाव" अरब महिलाओं में प्रचलित है, इसमे चेहरा खुला रहता है और इस विशेष पहचान के लिये भी पहना जाता है.
"बुरका" शरीर को पूरी तरह से ढक लेता है, सिर्फ़ देखने के लिये आंखों के सामने एक जालीदार खिडकी सी छोड दी जाती है.
"नकाव" में शरीर सिर से ऎडी तक एक कपडे से ढका होता है केवल आंखे खुली रहती है और चेहरे को ढकने के लिये एक अलग कपडे का प्रयोग किया जाता है
"शायला / शाल" एक चौकोर कपडा होता है जिसे पर्शियन महिलाये अपने सिर और गर्दन पर लपेट कर रखती हैं.
"चादर" ईरानी महिलाओं द्वारा प्रयोग में लाई जाती है जब वो घर से बाहर निकलती हैं और इससे पूरा शरीर ढका रहता है. यह शाल के साथ भी प्रयोग की जाती है
अफ़गानिस्तान में हबीबुल्ला (1901-1919) ने अपने हरम में 200 महिलाओं ने बुरके की प्रथा को लागू किया ताकि अन्य पुरुष उनका चेहरा न देख पायें. हबीबुल्ला की बेटी भी बुरका पहनती थी. उस समय बुरके सिल्क के कपडे से बनाये जाते थे और उन पर सुनहरी धागों से कसीदाकारी की जाती थी. एक तरह से बुरका उस समय मंहगा व्यसन था.
कुछ लोगों का विचार है कि बुरके की प्रथा पर्शियन अकेम्निड डायनेस्टी के समय ( 6 सेन्चुरी बी सी) से चली आ रही है जबकि कुछ लोग मानते हैं कि यह (13 सेन्चुरी बी सी) से चली आ रही है.
ऐतिहासिक तौर पर यह पस्तुन कबीले की महिलाओं का परिधान है. अमानुल्ला ने, जो हबीबुल्ला के बाद शाशक बने, बुरके की प्रथा को हटाने का प्रयास किया और उनकी रानी "सोरया तरजी" बिना बुरके के सबके सामने आई जिससे 1929 में उन्हें अपने देश से भागना पडा और भारत में शरण लेनी पडी.
सोवियत युनियन के बाद अफ़गानिस्तान के स्त्तारुढ होती ही बुरके की प्रथा को सख्ती से लागू किया गया
बुरके के कारण इन्हें धारण करने वाली महिलाओं को जो मुशकिलें सामने आती हैं वह इस प्रकार हैं
सात किलो के आसपास का वजन होने के कारण यह सिर पर अतिरिक्त बोझ डालता है.
गर्मी और उमस के मौसम में यह क्या कहर ढाता होगा यह हर कोई समझ सकता है.
चूंकि इसकी लम्बाई ऐडियों से भी नीचे तक होती है, चलने फ़िरने में भी काफ़ी परेशानी होती है.
इसके साथ ही आंखों के सामने एक जाली सी होने के कारण आसपास देखने में भी दिक्कत होती है.
इस प्रथा के कारण महिलायें या लडकियां किसी प्रकार की खेलों में भाग नहीं ले सकती.
पहचान पत्र और पास्पोर्ट पर भी बुरका सहित फ़ोटो लगी होने के कारण उनकी पहचान संदिग्ध हो जाती है.
गर्भधारण और बच्चे के जन्म के समय भी परेशानी आती है क्योंकि पुरुष डाक्टर अथवा अस्पताल की सेवायें नहीं ली जाती हैं और घर पर ही प्रसव को प्राथमिकता दी जाती है.
मल्लालाई मेटर्निटी सेन्टर कंक्रीट की ऊंची ऊंची दिवारों से घिरा हुआ है और केवल दो छोटी खिडकिया ही बाहर खुलती है जिससे महिलाओं के पति उनसे बातचीत कर पाते हैं.
बुरके की वजह से नवजात अपनी मां को ठीक से नहीं देख पाता ना ही उसका मां से शारीरिक टच हो पाता है जो कि उसके विकास के लिये बहुत महत्वपूर्ण है. स्तनपान कराना भी एक समस्या बन जाता है.
साभार - एक मित्र द्वारा भेजी गई ईमेल
हयाव बुरका नकाब शायला चादर
मुस्लिम महिलाओं को ऊपर दिये पांच में से किसी एक तरह की पर्दादारी से दो-चार होना पडता है.
"हयाव" अरब महिलाओं में प्रचलित है, इसमे चेहरा खुला रहता है और इस विशेष पहचान के लिये भी पहना जाता है.
"बुरका" शरीर को पूरी तरह से ढक लेता है, सिर्फ़ देखने के लिये आंखों के सामने एक जालीदार खिडकी सी छोड दी जाती है.
"नकाव" में शरीर सिर से ऎडी तक एक कपडे से ढका होता है केवल आंखे खुली रहती है और चेहरे को ढकने के लिये एक अलग कपडे का प्रयोग किया जाता है
"शायला / शाल" एक चौकोर कपडा होता है जिसे पर्शियन महिलाये अपने सिर और गर्दन पर लपेट कर रखती हैं.
"चादर" ईरानी महिलाओं द्वारा प्रयोग में लाई जाती है जब वो घर से बाहर निकलती हैं और इससे पूरा शरीर ढका रहता है. यह शाल के साथ भी प्रयोग की जाती है
अफ़गानिस्तान में हबीबुल्ला (1901-1919) ने अपने हरम में 200 महिलाओं ने बुरके की प्रथा को लागू किया ताकि अन्य पुरुष उनका चेहरा न देख पायें. हबीबुल्ला की बेटी भी बुरका पहनती थी. उस समय बुरके सिल्क के कपडे से बनाये जाते थे और उन पर सुनहरी धागों से कसीदाकारी की जाती थी. एक तरह से बुरका उस समय मंहगा व्यसन था.
कुछ लोगों का विचार है कि बुरके की प्रथा पर्शियन अकेम्निड डायनेस्टी के समय ( 6 सेन्चुरी बी सी) से चली आ रही है जबकि कुछ लोग मानते हैं कि यह (13 सेन्चुरी बी सी) से चली आ रही है.
ऐतिहासिक तौर पर यह पस्तुन कबीले की महिलाओं का परिधान है. अमानुल्ला ने, जो हबीबुल्ला के बाद शाशक बने, बुरके की प्रथा को हटाने का प्रयास किया और उनकी रानी "सोरया तरजी" बिना बुरके के सबके सामने आई जिससे 1929 में उन्हें अपने देश से भागना पडा और भारत में शरण लेनी पडी.
सोवियत युनियन के बाद अफ़गानिस्तान के स्त्तारुढ होती ही बुरके की प्रथा को सख्ती से लागू किया गया
बुरके के कारण इन्हें धारण करने वाली महिलाओं को जो मुशकिलें सामने आती हैं वह इस प्रकार हैं
सात किलो के आसपास का वजन होने के कारण यह सिर पर अतिरिक्त बोझ डालता है.
गर्मी और उमस के मौसम में यह क्या कहर ढाता होगा यह हर कोई समझ सकता है.
चूंकि इसकी लम्बाई ऐडियों से भी नीचे तक होती है, चलने फ़िरने में भी काफ़ी परेशानी होती है.
इसके साथ ही आंखों के सामने एक जाली सी होने के कारण आसपास देखने में भी दिक्कत होती है.
इस प्रथा के कारण महिलायें या लडकियां किसी प्रकार की खेलों में भाग नहीं ले सकती.
पहचान पत्र और पास्पोर्ट पर भी बुरका सहित फ़ोटो लगी होने के कारण उनकी पहचान संदिग्ध हो जाती है.
मल्लालाई मेटर्निटी सेन्टर कंक्रीट की ऊंची ऊंची दिवारों से घिरा हुआ है और केवल दो छोटी खिडकिया ही बाहर खुलती है जिससे महिलाओं के पति उनसे बातचीत कर पाते हैं.
बुरके की वजह से नवजात अपनी मां को ठीक से नहीं देख पाता ना ही उसका मां से शारीरिक टच हो पाता है जो कि उसके विकास के लिये बहुत महत्वपूर्ण है. स्तनपान कराना भी एक समस्या बन जाता है.
क्या यह बुरका इन महिलाओं के लिये एक "जेल" है
साभार - एक मित्र द्वारा भेजी गई ईमेल
4 comments:
बहुत यातना जैसा लगता है ..पर्दे के भी कई रूप आज ही जाने हैं ..
सच मे जेल ही है……………बेहद दर्दमयी स्थिति।
हमे तो यह अजीब ही लगता हे, लेकिन इस धर्म के मानने वालो की अलग बात हे, हमे उन से कोई शिकायत नही, हम कोन होते हे दुसरो की बात करने वाले?
बिलकुल सही कहा आपने! वाकई बुरका या पर्दादारी एक जेल की ही तरह है हर औरत के लिए....
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