एक पर्वत की व्यथा -


गर्व से सर उठाये
पर्वत की शिखरोँ को
सूर्य की किरण 
सर्वप्रथम
अंतिम किरण
अंत तक
निज दिन चूमती है
परंतु चकित हूँ
यह फिर भी हरित नहीँ होती
हरित होती हैँ घाटियाँ
जीवन वहीँ विचरता है
किँचित यह ओट देने का श्राप है
अथवा दमन का प्रतिशोध
कि जल की एक बूँद नहीँ ठहरती यहाँ
जल स्त्रोत इसी गोद मेँ जन्म ले
पलायन कर जाते हैँ
हवा की सनसनाहट
बादलोँ की गडगडाहट
के अतिरिक्त कोई स्वर नहीँ गूँजता
यदा कदा कोई पद चाप सुनाई देती है
परंतु यह हर्ष का नहीँ विषाद का स्वर है
उसके शीर्ष पर गडी एक पताका
उसे बोध दिलाती है
वह अजय नहीँ
पराजित है




No comments: