हल बैल फिर खेत निरायी
कहीं बीज कहीं पौध रोपायीहरी कौपले, कोमल डालियाँ
समय से बने सुनहरी बालियाँ
खलिहानों से दुकानों तक
दुकानों से घर की रसोई
रसोई से फिर थाली तक
किस पर क्या-क्या बीता
किस ने है क्या-क्या झेला
कुछ जग जाहिर है इस दूरी में
और कुछ न कहने की मजबूरी में
कच्ची मिट्टी सांचों में ढल कर
जलती भट्टी की आंच में तप कर
झोंपडी महल और कंगूरे
कुछ सजे हुये कुछ आधे-अधूरे
खड़े हुये हैं जो सिर को उठाये
ईंट से ईंट जोड़ कर गये बनाये
हिमखंड पिघले तो जलधारा
जलधारा मिल बने महानदी
संगम महानदियों का सागर है
वाष्प जल सागर तल से उठ
घनघोर घटायें बन छाते हैं
कहीं बर्फ़ की बिछती है चादर
कहीं हों ओलों की बौछारें
पर्वतों के तन से धुलती है माटी
कहीं शिला-खंड रेत बन जाते हैं
काल-चक्र से बन्ध कर जीवन
शैशव, यौवन की देहरी को लांघ
अपने अन्तिम चरण को पाता है
एक बूंद बारिश की
सीप का सौपान बन
अनमोल रत्न बन जाती है
एक पल सौभाग्य का
जीवन को खुशियोँ से भर देता है
इतिहासों के खड़े यह खण्डहर
कालचक्र से उठे यह बबण्डर
परिवर्तन के मूक साक्षी
हमको यह दर्शाते हैं
बन बन कर मिट जाने का
उठ कर फिर गिर जाने का
दूसरा नाम परिवर्तन है
और परिवर्तन का नाम ही जीवन है
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