आखिर चुने गये तुम रिश्तोँ की मिनारों मेँ
और साँस ले रहे हो एहसास की दरारों मेँ
पर कतरवा अरमान घौँसल़ोँ मेँ फिर लौटे
कई नश्तर लगे हुए थे उम्मीद की दीवारोँ मेँ
वो काफिले बँधे थे किसी दूसरे ही सफर से
बेकार चलते रहे हम उन लम्बी कतारोँ मेँ
रोशनी नहीँ आग थी जो आई दूर नजर मेँ
उससे तो भले थे हम अपने चाँद सितारोँ मेँ
हर कतरा आज अपना हिसाब माँगता है
नहाये ही क्यों थे "मोह" तुम ऐसी फुहारों मेँ
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, जज साहब के बुरे हाल “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत उम्दा सर जी
ReplyDeleteस्वागत है गम कहाँ जाने वाले थे रायगाँ मेरे (ग़जल 3)
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' ३० अप्रैल २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
ReplyDeleteटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
सुंदर
ReplyDelete:) Bahut sundar rachna, bahut peeda ke saath.
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