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अपनी बूढी मां
शराबी बाप व
चार बहनों के भरण-पोशण
और विवाह से
उसने जब निजात पाया
तब स्वंय को
अधेडपन व अकेलेपन
से घिरा पाया
समय बदला
एक सहकर्मी ने
उसे परखा, पहचाना सराहा
हाथ थामने की इच्छा को जताया
सूखे पत्ते पल भर को
फिर हरे हो गये
सब विषाद जीवन के
जैसे परे हो गये
उसने जब यह सब
अपनी मां को बताया
खुशी की जगह
मां की आंखों में पानी था
अकेले जीने की असमर्थता
साफ नजर आ रही थी
कैसे लक्षमी को विदा करे
कह नही पा रही थी
खामौशी ने सब कह दिया
खिलते फूल मूर्झा गये
पलकों से निकल
बेबसी के दो मोती
प्यासी धरती में समा गये
एक बेटी, बेटा बन
मनोभावना पर अंकुश रख
जब अति हो गयी
मांग में बिना सिन्दुर भरे
कर्तव्य की बेदी पर
स्वंय सती हो गयी
मोहिन्दर
1 comment:
आपके लफ़्ज़ो में एक सचाई ,एक आग है ..दिल को छू गयी आपकी यह रचना !
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