तुम आ जाओ




मेरे हृदय के सिथर जलताल में
तुम लहरें उठा कर चले गये
ये तरंगें अब विकराल हो
ज्वार नहीं तूफान बन गयी हैं
कहीं डूब न जाऊं मैं इनमें
तुम सम्बल बन कर आ जाओ
सूख्नने लगा है आशा का स्त्रोत
तेरी विरह की धूप से अब
सावन की रिमझिम से कुछ बनता नहीं
तुम भादों की बरखा बन छा जाओ
तुम आ जाओ, तुम आ जाओ

मोहिन्दर

1 comment:

रंजू भाटिया said...

सावन की रिमझिम से कछ बनता नहीं
तुम भादों की बरखा बन छा जाओ
तुम आ जाओ, तुम आ जाओ