कौन हूं मैं


कौन सा परिचय दूं मैं अपना
जीवन की संध्याबेला होने को आयी
स्वंय से भी मेरा परिचय हो नही पाया

क्या नाम गोत्र ही
वाक सरोत्र ही
वास्तविक पहचान है मेरी
क्या मैं वह एक विशाल शिला हूं
जो समय की धारा में बहते बहते
शीत ताप को सहते सहते
अपना अस्तित्व विसार चुकी है
एंव रज कण में परिवर्तित है

क्या मैं सूर्य हूं एक बुझा हुआ
धधकती ज्वालाओं को समाहित कर
एक ही धूरी पर घूम रहा
औरों को प्रकाशित कर
अंधकार में लिप्त हुए

क्या परिस्थियों का दास हूं मैं
मुखोटे लगा कर स्थापित हूं
दर्पण भी विस्मित है
स्वंय भी भरमाया हूं

कालचक्र के गूढ मन्थन से
जो भी उपजा या पाया है
वो अमृत है या तीव्र हाला
इसका निर्णय कौन करे
भीतर उपजी कुण्ठाओं का
अब तक विशलेषण हो ना पाया

कौन सा परिचय दूं मैं अपना
जीवन की संध्याबेला होने को आयी
संवय से भी मेरा परिचय हो नही पाया

कौन हूं मैं





4 comments:

रंजू भाटिया said...

कौन सा परिचय दूं मैं अपनाजीवन की संध्याबेला होने को आयीसंवय से भी मेरा परिचय हो नही पाया
कौन हूं मैं

bahut hi sahi baat likhib hai aapne ..shayad anth tak hamara khud se hi pehchaan nahi ho paati ...

Swarna Jyothi said...

मोहिन्दर जी सबसे पहले तो मेरा नमस्कार स्वाकार करे फिर मेरा ध्न्यवाद स्वीकारे आप की प्रतिक्रिया पढी दऱख्तों के अकेले पन में शायद कहीं न कहीं हमारा अकेला पन भी छुपा है ऐसा कुछ आप की कविता कौन हूँ मैं पढ कर लगा । यूँ लगा को जैसे

आईना मुझसे मेरे होने की निशानी माँगे

ओंकारनाथ मिश्र said...

मन को उद्वेलित करती रचना.

Aparna Bose said...

कालचक्र के गूढ मन्थन से
जो भी उपजा या पाया है
वो अमृत है या तीव्र हाला
इसका निर्णय कौन करे
भीतर उपजी कुण्ठाओं का
अब तक विशलेषण हो ना पाया... sundar panktiyaan....