किसी रोज जब सो कर न उठूंगा
तब तो आओगे
सभी शिकवे हैं मुझी से अब तक
फिर किसे सुनाओगे
यही दीवारे
यही छत
यही मकां होगा
ढूंढते फ़िरोगे हमें
सदा सी गूंजेगी इक
और न कोई निशां होगा
तमाम शब गुजरेगी करवटों में
सो न पाओगे
किसी रोज जब सो कर न उठूंगा
तब तो आओगे
मेरे सब्र का इम्तहान
मत लो तुम
इतनी बेरूखी से काम
मत लो तुम
दोस्त सच्चे, जहां में
मिलते हैं बहुत कम
दोस्तों में दुनिया का नाम
मत लो तुम
भीड होगी बहुत मगर
आंसू तुम्ही बहाओगे
किसी रोज जब सो कर न उठूंगा
तब तो आओगे
9 comments:
मत लो तुम
दोस्त सच्चे, जहां में
मिलते हैं बहुत कम
दोस्तों में दुनिया का नाम
मत लो तुम
भीड होगी बहुत मगर
आंसू तुम्ही बहाओगे
sundar rachna hai ...
दिल के बहुत करीब है यह रचना । सुंदर ।
चाहे शरीर नींद से न उठे पर शायद हम वहाँ अदृश्य हो कर देख रहे हों कि कौन रो रहा है और कौन नहीं! या फ़िर शायद इन सब बातों में दिलचस्पी ही न हो! :-)
मोहिन्दर जी इतनी नाराजगी क्यूँकर आपकी रचना में बहुत दर्द है,..हर पक्तिं अपने आप में सुंदर है,..मगर ये कुछ जियादा अच्छी लगी,..
मेरे सब्र का इम्तहान
मत लो तुम
इतनी बेरूखी से काम
मत लो तुम
दोस्त सच्चे, जहां में
मिलते हैं बहुत कम
दोस्तों में दुनिया का नाम
मत लो तुम
भीड होगी बहुत मगर
आंसू तुम्ही बहाओगे
सुनीता(शानू)
नीरज जी की कुछ पंक्तियां याद आ गयीं
और लम्बी न करो मेरी प्रतीक्षा की उमर
जिस तरह से भी बहे चार घड़ी आ जाओ
ज़िन्दगी बन के जो आना है नहीं मुमकिन तो
मौत बन कर ही जवानी पे मेरी छा जाओ
"मशरुर अनवर" साहब का कलाम याद आ गया यह पढ़कर--मुझे तुम नजर से गिरा तो रहे हो…मुझे तुम कभी-भी भुला न सकोगे
एक दम "परफेक्ट" मोहिन्दर जी क्या बात है…कविताओं में कुछ और ही बात है…जो मन से सीधी उठती दिख रही है…। :)
मोहिंदर जी आपने कविता को ग़ज़ल का लेबेल क्यों दिया ? और जनाब इस क़दर शिकवा इतनी शिक़ायत किस से जरा बताइए तो ..... ये किस्से सभी को सुनते नही हैं मगर दोस्तो से छुपाते नही हैं...
किसी रोज जब सो कर न उठूंगा
तब तो आओगे
सभी शिकवे हैं मुझी से अब तक
फिर किसे सुनाओगे
bahut khoob...
jo baat kisee se naheen kaha paataa,apanee lekhanee se kaha detaa hai...
bahut khoobasoorat...
किसी रोज जब सो कर न उठूंगा
तब तो आओगे
सभी शिकवे हैं मुझी से अब तक
फिर किसे सुनाओगे
दिल की बात सहकर ...रह-रहकर निकली है ..
बधाई
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