तुमने समन्दर देखा
बैठ किनारे पर
डूबते सफीनों के
मंज़र नहीं देखे
दो बूँद लहू तुमको
रिस्ता नज़र आया
रूह तक उतरे
खँजर नहीं देखे
आदत है तुमको
रहने की गुलशन में
जो सदियॉं से सूखे हैं
बँजर नहीं देखे
इनायत की बारिश
खुदा ने की तुम पर
वक्ती गिद्दों ने जो नोचे
पिँजर नहीं देखे
न झूठा गुमा कर
तकदीर पर तू अपनी
खुद से जो हारे
सिकन्दर नहीं देखे
4 comments:
जी बहुत अच्छा
मोहिन्दर जी एक दम सत्य वचन। अच्छा लगा पढ़कर...
आप अपना वो बटन जरा... थौड़ा छोटा कर दिजिये...जो मेरे चिट्ठे पर लगा है...
सुनीता(शानू)
बहुत बढ़िया, मोहिन्दर भाई. जारी रहो.
मोहिन्दर जी
आपकी यह रचना पढ़ कर बहुत अच्छी लगी।
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