विश्वास की डोर

यह कहानी एक पर्वतारोही के सम्बन्ध में है जो एक उंची शिखर पर विजय प्राप्त करना चाहता था. कई वर्षों के कठिन अभ्यास के बाद उसने अकेले ही उस शिखर पर चढने का निर्णय किया.



उसने चढाई शुरु की और कुछ दिनो में ही वह शिखर के काफ़ी नजदीक पहुंच गया..



चूकिं उसे सफ़लता नजदीक दिखाई दे रही थी उसने देर शाम को भी पडाव डालने की जगह चढाई जारी रखी. रात का गहन अन्धकार छा रहा था और हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था.

वह शिखर से थोडी ही दूर था कि अचानक उसका पैर फ़िसला और वह तेजी से ढलान पर लुढकने लगा. जीवन के अच्छे बुरे दिन उसकी आंखों के सामने चलचित्र की तरह तेजी से आ जा रहे थे.

तभी एक झटका लगा और पर्वतारोही की कमर में बंधी रस्सी जोर से उसकी कमर पर कस गई. उसे अपनी मौत सामने नजर आ रही थी. वह रस्सी से लटका हुआ हवा में झूल रहा था और उसके पास ईश्वर को पुकारने के अतिरिक्त कोई चारा न था.."ईश्वर मुझे बचा लो"

तभी आकाश से एक गंभीर आवाज आई कि तुम मुझसे क्या चाहते हो ?

"ईश्वर मुझे बचा लो" पर्वतारोही ने पुकारा.

क्या तुम्हें विश्वास है कि मैं तुम्हें बचा लूंगा.

"हां" मुझे पूरा विश्वास है, पर्वतारोही बोला.

तभी एक आवाज आयी... ठीक है ..तुम अपनी रस्सी काट दो.

कुछ पल शांति छाई रही और पर्वतारोही ने रस्सी से लटके रहने का निर्णय लिया.

अगले दिन सुबह बचाव दल को वह पर्वतारोही ठंड से जम कर मरा हुआ मिला. उसकी लाश जमीन से सिर्फ़ दस फ़ुट की दूरी पर रस्सी से लटकी हुई झूल रही थी.

और आप ? आप रस्सी को कितनी मजबूती से थामे हुये हैं ? क्या आप इसे छोड पायेंगे ?

ईश्वर कभी हमसे दूर नहीं..वह हमें कभी नहीं त्यागता यह विश्वास सदैव मन में बनाये रखें.
विश्वास की डोर ही हमें ईश्वर से जोडे रखती है.

3 comments:

Udan Tashtari said...

मोहिन्दर भाई

क्या आपके हिसाब से उसे रस्सी काट देना चाहिये था या उसने जो किया, वो ठीक था??

शोभा said...

मोहिन्दरजी
बहुत ही सुन्दर कथा लिखी है आपने । सच में हम लोग रस्सी को छोड़ ही नहीं पाते ।
आपकी आस्था को प्रणाम ।

रंजू भाटिया said...

विश्वास है तो जीवन है . सुंदर