संस्कृति पलायन

आधुनिकता की आपा-धापी
चिरसंचित संस्कृति पर भारी है
दो पीढ़ियों का अन्तराल बता कर
ध्यान बटाना जारी है
संबोधनों की वक्रता ने
संबंधों की मधुरता लीली है
भाई तो "ब्रो" हो गया
बहना को "सिस" बना डाला
पिता श्री तो "डेड" हो गये
माता श्री को "मोम" बना डाला
चाचा, ताऊ, मौसा, मामा, फूफा
एक शब्द "अंकल" में कैद हुये"
आंटी" पुकारे तो कौन सुने
चाची, तायी, मौसी, मामी और
बुआ में मतभेद हो गये
पांव छूने का गया जमाना
आशीर्वाद अब नहीं जरूरी
गुडमार्निंग से काम चलाते
झुकने से रखी जाती दूरी
हाय हैलो लागे प्यारा
यार यार बुलाना फैशन है
किसके कितने "बी एफ" "ज़ी एफ"
ये पापुलेरिटी आप्रेशन है
इंटेलीजैंस का माप जोख है
फर्राटे की इंगलिश से
झाडू, पोछा, रसोई, बर्तन
ये सब गुजरे कल की बाते हैं
फास्ट फूड का आया जमाना
पीजा, पास्ता, बर्गर, न्यूडल
इन सब की जमी हुयी विदेशी हाटें हैं
बाल बढ़ा कर लड़के घूमें,
बाल कटा कर छोरियां
कपड़े केवल कट पीस रह गये
जिन्हें थामें पतली डोरियां
डिस्को और नाईट पार्टी से
नजदीकी जितनी
पूजा और मन्दिर से
उतनी दूरियां
सुन्दरता की होड़ में देखो
अंग प्रदर्शन की मजबूरियां
घाट खो गये,पनघट सूने
केवल नल तक सीमित
हो गयी हैं पनहारियां
टैरस गार्डन बन कर रह गयी
आंगन की वो क्यारियां
खेत खलिहान बेच बेच कर
कहां जा रहे जाने लोग
मेरे स्वर्ग से सुन्दर गांव को
लग गया कोई शहरी रोग

2 comments:

राकेश खंडेलवाल said...

जानते हैं बिम्ब दिखलाता नये अब आईना है
और उनमें कोई भी पहचान का दिखता नहीं है
एक ओढे़ आवरण का ये मुलम्मा तो क्षणिक है
जानते हैं हम मगर स्वीकार ये होता नहीं है

Unknown said...

तरकश सम्मान हेतु हार्दिक बधाईयाँ… हालांकि मेरी मोटी बुद्धि के कारण कविताओं की समझ कम ही है… फ़िर भी इतने लोगों ने आपको पसन्द किया है तो मेरी भी बधाईयाँ… दिल से…।