लेख में दिये आंकडों का सत्यापन कितना आवश्यक ?


दैनिक हिन्दी समाचार पत्र "राष्ट्रीय सहारा" में श्री अरविन्द खरे का एक लेख पढा "इंटरनेट पर हारती हिन्दी" जिसको स्केन कर के आपके समक्ष रख रहा हूं. लेख में काफ़ी सारे आंकडे दिये गये हैं उनका आधार क्या है मैं नहीं जानता परन्तु एक जगह उन्होंने लिखा है.

" इस समय इंटरनेट में हिन्दी में २० अच्छी पत्रिकायें चल रही हैं. इनके पढने वालों की अच्छी तादाद है. उन्होंने एक स्तर बनाया हुआ है. इनमे से कुछ हैं अभिव्यक्ति, सजनगाथा, शब्दांजलि, साहित्य कुंज, छाया, गर्भनाल, भारत दर्शन इत्यादि."

यह लेख निगाहों से गुजरा ही था कि मेरी बातचीत गूग्ल टाक पर श्रीमति पूर्णिमा बर्मन जी से हुई जो अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों जाल पत्रिकाओं से जुडी हुई हैं. जब मैने उनसे इस लेख का जिक्र किया तो उनकी प्रतिक्रिया कुछ इस तरह से थी जिसे मैं उन्ही के शब्दों में नीचे दे रहा हूं... और इसके लिये मैने उनसे अनुमति भी ले ली है.

"Purnima: अरविंद खरे जी का यह लेख निहायत आउट डेटेड और अज्ञानतापूर्ण जानकारी से भरा हुआ है। उदाहरण के लिए अधिक प्रचलित वेब पत्रिकाओं में शब्दांजलि का नाम है जो एक साल से भी अधिक समय से बंद पड़ी है यहाँ तक कि उसका डोमेन भी एक्सपायर हो गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो नामो-निशान तक नहीं है। छाया नाम की कोई पत्रिका है ही नहीं वह तो लेखकों के चित्रों वाला ब्लॉग है जिसमें सिर्फ़ फोटो हैं। सृजनगाथा वेब पर है ज़रूर लेकिन उसका प्रमुख क्षेत्र प्रिंट मीडिया है जैसे हंस। भारत-दर्शन ऐसी पत्रिका है (अगर वह पत्रिका है तो) जो साल में शायद ही एक बार अपडेट होती है। अंतिम संपादकीय जुलाई 2007 से भी पहले का लिखा हुआ मालूम होता है। गर्भनाल तो वेब पत्रिका है ही नहीं वह पीडीएफ़ पत्रिका है और वेब पर नहीं अपने कंप्यूटर पर डाउनलोड करने के बाद ही पढ़ी जाती है और ऐसी पत्रिकाओं को शामिल करना ही है तो पहले नंबर पर नया ज्ञानोदय के साथ कम से कम सनद का नाम तो लिया ही जा सकता हैं।

दूसरी ओर तमाम हिंदी जाल पत्रिकाएँ जो अच्छा काम कर रही हैं जैसे कृत्या, हिंदी नेस्ट, हिन्द युग्म, दैनिक जागरण और वेब दुनिया के साहित्य और परिवार संस्करण, हिन्दी साहित्य सरिता, रचनाकार, वाटिका, हिंदी सेतु आदि का कहीं नाम तक नहीं है। नई नवेली लेखनी भी एक साल से नियमित प्रकाशित हो रही है। अगर सिर्फ़ पत्रिकाओं के नाम लेने में इतनी गड़बड़ी है तो आँकड़ो के संकलन में कितनी गड़बड़ी होगी उसका अंदाज़ लगाना काफ़ी आसान है। जो लोग समझते है कि अंतरजाल सत्यवादी लोगों के ब्रह्मवाक्य का निश्चित मानदंड है उनको इंटरनेटवर्ल्डस्टैट्सडाटकाम के यहाँ दिए गए आँकड़ों से सबक लेना चाहिए और आँकड़े कहीं से आँख बंद कर के उठा लेने की बजाय खुद भी वेब खंगाल कर देखना चाहिए। आखिर पत्रकारों का भी कुछ दायित्व होता है, कम से कम इस तरह की निगेटिव रिपोर्टिंग करते समय। "

मुझे श्रीमति पूर्णिमा जी से बात करते हुये जब पत्रिकाओं के नाम के बारे में जो लेख में दिये गये हैं इतना विरोधाभास लगा तो बाकी के आंकडों के बारे में क्या कहा जाये. निश्चय ही एक रिपोर्टर की यह जिम्मेदारी बनती है कि जो आंकडे लेख में दिये जा रहे हैं उनका अपने तौर पर एक बार सत्यापन कर लिया जाये.

लिखने से पहले यह भी जान लें कि पाठक काठ के उल्लू नहीं वर्ना सजग पाठक हैं और वह स्वयं भी लेखन के लिये मसाले की तलाश में रहते हैं... अत: मौका न दें :)



1 comment:

समयचक्र said...

तथ्यात्मक आलेख के लिए आपको धन्यवाद