चेहरों के पीछे कितने चेहरे हैं
कभी पलट कर गौर से देखो
मेलों की हँसती भीड़ में तुमको
दर्द सजीले मिल जायेंगे
आठ फ़ीट धरती से ऊपर
रस्सी पर चलती मुनिया रोज़
आंख फ़ाड़ कर देखते बच्चे
कुछ सिक्के बरसाते लोग
पेट की खातिर रोज़ का किस्सा
है बस इस मेले का हिस्सा
कभी ग़ौर से देखा है मुनिया को
पैर में छाले, हाथ में गांठें
सूखी रोटी, नहीं पंराठे
है बचपन, पर कहां खेल रही है
परिवार का बोझा ठेल रही है
समय किताबों का हाथों में किन्तु
चन्दू जूतों पर ब्रश फेर रहा है
एक उजले चांद को जैसे
विषाद का बादल घेर रहा है
साथ में ले इक जोड़ी बन्दर
विक्रम डुगडुगी रोज़ बजाता है
जाने भाग्य उसे नचा रहा है
या बन्दर वो नचाता है
और भी ऐसे कितने चेहरे हैं
जो झूठी मुस्कानों से अटे पड़े हैं
वो पकवान परोसते देर रात तक
जिनके पेट पीठ से सटे पड़े हैं
इक भीड़ को जिन्दा रखने की खातिर
जाने खुद से लड़ कर, मरते कितने लोग
फलते-फूलते अमरबेल से सारे शातिर
सूखते जाते जो मेहनत करते हैं लोग
चेहरों के पीछे कितने चेहरे हैं
कभी पलट कर गौर से देखो
मेलों की हँसती भीड़ में तुमको
दर्द सजीले मिल जायेंगे
चारों तरह यही हवा है
इस रोग की कोई दवा है ?
2 comments:
है दवा इस रोग की भी… जब चेहरों में खुशियाँ तलाश लेगें…
मोहिंदर भाई कैसे है?
काफी दिनों बाद ब्लाग पर आया… और चेहरे के पिछे चुपे भौतिक आवरण में दर्द खोज ही डाला…
बहुत सार्थक कविता है…।
क्या बात है भाई!!!! बहुत खूब!१
किताब मिली कि नहीं??
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