कोमल बेल या मोंढ़ा


बेटी व्याही, तो समझो गंगा नहाये
सुनकर लगा था कभी
जैसे कोई पाप पानी मे बहा आये
बचपन से क्षीण परिभाष्य
हर दर, हर ठौर, भारित आश्रय
एक कोमल बेल सी मान
हर पल एक मोंढ़ा गढते
थक गई थी
अनदेखे
अनबूझे
अनचाहे
सहायक अवरोधों पर चढते चढते
फ़िर हुआ कन्या दान
एक पक्ष
अपने दायित्व से मुक्त
दूसरा पक्ष
धन और दो अतिरिक्त हाथों से युक्त
परन्तु क्या बदला है
घर
गांव
अडोस-पडोस
अवलम्बन
बाकी सब वही है
एक बेल को उखाड कर
दूसरी जगह रोपा
एक भार दूसरे को सोंपा
बेल पनपेगी,
पल्लवित होगी
पर कौन जाने
कितनी सबल बनेगी ?
क्या जनेगी ?
कोमल बेल
या
मोंढ़ा
उसी से उसका आंकलन होगा
देखें आज का दुल्हा कल क्या कहाता है
मुक्त रहता है, या गंगा नहाता है

2 comments:

समयचक्र said...

bahut sundar badhaai

Anonymous said...

Hello. This post is likeable, and your blog is very interesting, congratulations :-). I will add in my blogroll =). If possible gives a last there on my blog, it is about the Home Theater, I hope you enjoy. The address is http://home-theater-brasil.blogspot.com. A hug.