दोस्ती - दुशमनी

हमें कब उम्मीद थी उस बेवफ़ा से वफ़ाओं की
बस आदत है आंधियों में चिराग जलाने की

सफ़र में हो तो दर्दो-गम से दोस्ती जरूरी है
गिरना, संभलाना लाजिम है दौड में जमाने की

फ़ितरतन कुछ दोस्त निभायेंगे दुशमनी तुम से
सोच लो कितनी हिम्मत है तुम में निभाने की

कौन अपना है और कौन पराया इस दुनिया में
जान कर भी यह बात नहीं किसी को बताने की

क्या खबर कब हमसफ़र हों कब छोड दें साथ
बदलती रहती है राह अक्सर बांबरे तुफ़ानो की

1 comment:

नीरज गोस्वामी said...

महेंद्र जी
भाई बहुत खूब...शब्द और भाव दोनों बेमिसाल. वाह वा.
नीरज