तरकश स्वर्ण कलम पुरस्कार या खिलवाड

लम्बी चुप्पी के बाद आज मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं हो रही कि तरकश स्वर्ण कलम पुरस्कार के नाम पर हिन्दी ब्लागर्स की भावनाओं से प्रायोजकों ने खिलवाड किया है. यह आयोजन सिर्फ़ अपनी साईट पर ट्रेफ़िक बढाने के माध्यम से आयोजित किया गया ऐसा लगने लगा है...... जिन हजारों रुपयों के इनामों की घोषणा की गई थी वो किताबों की शक्ल में सिर्फ़ मनोज जी द्वारा समय पर भेजे गये... अन्य सभी के लिये दो महीने तक बार बार संजय बैंगाणी जी को मेल अथवा चेट पर सूचित करना पडा और वह यही कहते रहे कि देरी के कारण हो सकते हैं जिन्हें बाद में उजागर किया जायेगा.

चार महीने होने को आये हैं आज तक प्रशस्ति पत्र और शील्ड दोनो विजेताओं तक नहीं पहुंची है. और अब उसकी कोई चाह भी नहीं रही है. इसी से पता चलता है कि प्रायोजक इस आयोजन के लिये कितने धीर गम्भीर हैं और इसे कितना महत्व दे रहे हैं...पूछने पर यही जबाब मिलता रहा कि जो ट्राफ़ी बन कर आई वो हमें पसन्द नहीं है दोबारा बनाने को भेजी गई है...

तीन महीनों में तो ट्राफ़ी विदेश से भी आ जाती. और क्या प्रायोजन से पहले इसे तैयार नहीं रखना चाहिये था.

मैं यह मेल इस लिये लिख रहा हूं ताकि अगले साल होने वाली प्रतियोगिता में हिस्सा लेने वाले लोग इस खिलवाड का शिकार न हों.

मुझे आशा है कि हिन्दी ब्लोगर्स मित्र मेरी भावना को समझेंगे और इस मेल को अन्यथा नहीं लेंगे.

12 comments:

Arun Arora said...

इसीलिये तो कहा था कि पंगेबाज पुरुस्कार के लिये कोशिश करते तो जरूर मिलता :)

रंजू भाटिया said...

सही लिखा आपने मोहिंदर जी .अब तो ट्राफी सपने में भी दिखनी बंद हो गई है ..:) अगली बार के भाग लेने वाले इस को ध्यान से पढ़ ले :)

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav said...

अलगी बार हम भाग लेंगे
तरकश के कर्कश तीर चुभें
उससे पहले ही जाग लेंगे
पर पक्का हम भाग लेंगे
भाग भरोसे नही रहेंगें
भाग मिले यह नहीं कहेंगे
पुरस्कारो से बैराग लेंगे
अलगी बार हम भाग लेंगे

- भाग* बोले तो रन अवे आप भी ना ....
- भाग* बोले तो दुर्भाग्य
- भाग* बोले तो हिस्सा
समझ आ गया किस्सा
थैक गोड. किस्सा समझे कहीं किस्सी.... समझ लेते तो मानहानि का दावा हो जाता जी.. अभी तो हानी ही हुई है...

Manas Path said...

किसी बड़े घोटाले की बू आ रही है.

Rajesh Roshan said...

अभी भी विजेता का तमगा आपके ब्लॉग पर लहरा रहा है. इसकी जरुरत रह जाती है क्या?

Nataraj said...

आपको क्या क्या प्राप्त हुआ तथा क्या क्या नहीं, पूरी लिस्ट देते तो ज्यादा अच्छा था.

साधवी said...

क्या यह पुरुस्कार कोशिश करने से मिलता है, पंगेबाज भाई? कोई पहले भी बता रहा था कि इनको बहुत कोशिश करके मिला है.

Unknown said...

:) :) अब मैं क्या कहूँ… समझ नहीं आ रहा :)

Anonymous said...

http://maeriiawaaj.blogspot.com/2008/03/blog-post_11.html
तरकश सम्मान विजेता आज भी अपने पुरूस्कार के इंतज़ार मे हैं ।

पुरूस्कार घोषित करना और पुरूस्कार देना इन दोनों मे क्या अन्तर हैं जानना चाहते है तो बात करे तरकश सम्मान विजेतायों से जो आज भी अपने पुरूस्कार के इंतज़ार मे हैं । आज तरिबन २ महीने से ज्यादा समय होगया है पर दोनों विजेता अभी भी “ट्रोफी” के इंतज़ार मे हैं । आशा है अगले वर्ष सभी चिट्ठाकार अपना अमूल्य समय वोट देने और नामांकन की प्रक्रिया मे नहीं लगायेगे । इस तरह के फारस से बचना होगा सबको ताकि हिन्दी चिट्ठाकार आजाद हो सके उन लोगो से जिन्हों अपने फायदे के लिये हिन्दी को एक माध्यम बना लिया है । अभी तक चजई यानी चिट्ठाजगत के द्वारा संकलित प्रविष्टियों पर भी कहीं से कुछ पता नहीं चला है । और srjan सम्मान का मामला तो सबके सामने आ ही चुका है ।



Posted by kewal sach at 02:16
1 comments:
संजय बेंगाणी said...
आपकी पोस्ट आधी अधूरी जानकारी पर आधारीत है. इनाम विजेताओं तक पहूँचाये जा रहे हैं. कुछ उन्हे प्राप्त हुए है, कुछ जल्दी ही हो जायेंगे.

Priyankar said...

जन्नत की हकीकत यही है क्या ?

Neeraj Rohilla said...

हद हो गयी भाई,
पता नहीं हम ही गलत धारणाओं पर जिंदा हैं । बचपन में हमें एक पुरस्कार में कोई मैडल,शील्ड नहीं मिली थी केवल सर्टिफ़ेकेट मिला था तो हमारे एक पडोसी ने हमारा लटका चेहरा देखकर कहा था । "बेटा मान का पान ही बहुत होता है" ।

आपको मान मिला, चिट्ठाजगत में आपको लोगों ने जाना, आपकी रचनाओं को पढा । चलिये मान लिया कि शील्ड नहीं मिली, तो इसके तरकश वालों ने कौन से हजारो डालर कमा लिये अपनी वैबसाईट पर बढे टैफ़िक से?

खैर ये तो मेरी छोटी सोच हो सकती है । दुआ करेंगे कि आपको आपके सम्मान की सनद जल्दी ही मिल जाये ।

Sanjay Tiwari said...

हा हा हा .............सीरियस क्यों हो गये भाई.
ट्राफी पाने की इच्छा रखने की बजाय आप भी एक पुरस्कार शुरू कर दिजिए. रजत कलम. दो-चार का खर्च आयेगा उतना आप जुगाड़ ही लेंगे.
सच कह रहा हूं.
हिन्दी का भट्टा ऐसे ही थोड़े बैठा है. चार अक्षर लिखे नहीं और पुरस्कार की राजनीति शुरू कर देते हैं हम लोग.