बिखरे सवालों को जबाब होने दो
मेरे किस्सों को किताब होने दो
दर्द की शिद्दत को पहचानेंगे वो
जर्रा-ए-दिल को आफ़ताब होने दो
माहताब कब तक छिपेगा पर्दों में
आज सच को बेनकाब होने दो
आंसू भारी पडेंगे हरसू दौलत पर
ठहरो आखिर को हिसाब होने दो
ढूंढा फ़िरेगा मुझको जमाने भर में
उदास मुहब्बत को अजाब होने दो
"मोह" की अब तक कटी ख्यालों में
बाकी बची को भी पुर-ख्वाब होने दो
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शिद्दत = तेजी, तीव्रता, मात्रा
जर्रा-ए-दिल = दिल का टुकडा
आफ़ताब= सूरज, चमकता सितारा
माहताब = चांद की रोशनी, चांदनी
चिलमन = झीना पर्दा
हरसू = चारों तरफ़
अजाब = विशिष्ट, कम पाया जाने वाला
चमत्कारी
पुर-ख्वाब=स्वप्न भरी, स्वप्नमय
2 comments:
माहताब कब तक छिपेगा पर्दों में
आज सच को बेनकाब होने दो
बेहतरीन गज़ल। बधाई स्वीकारें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
दर्द की शिद्दत को पहचानेंगे वो
जर्रा-ए-दिल को आफ़ताब होने दो
माहताब कब तक छिपेगा पर्दों में
आज सच को बेनकाब होने दो
बहुत सही मोहिंदर जी ..अच्छी लगी आपकी यह गज़ल
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