हर पल इक नया स्वप्न


हर पल देखते नयन मेरे, इक नया स्वप्न
और मिटा देते उसको स्वंय, मन ही मन

शुष्क कोष्ठों में निहित
अस्फ़ुटित, निश्चेत सा
घुटता धरा की कोख में
एक जीवन जी रहा
रितु आगमन की चाह में
जब तनिक सी नमी से
बीज यह प्राण प्रतिष्ठा पायेगा
नव जीवन की किरण बन
कोमल कौंपल के रूप में
प्रकट हो धरा पर आयेगा

हर पल देखते नयन मेरे, इक नया स्वप्न
और मिटा देते उसको स्वंय, मन ही मन

समाप्त होती नहीं यहीं पर
अनुतरित प्रश्नों की झडी
जाने कितनी बाधायें हों
प्रकाशित सतह पर खडी
क्या हो यदि अवतरण हुआ
आंचल में किसी कंटीली झाड के
जो दे चुभन ही चुभन बदले में
उस आपेक्षित छाया और आड के
इससे चिरकाल निंद्रा का स्वाद ही भला
जीवन पाकर काहे, जीवन से जाऊं छला

हर पल देखते नयन मेरे, इक नया स्वप्न
और मिटा देते उसको स्वंय, मन ही मन

4 comments:

योगेन्द्र मौदगिल said...

अच्छी कविता के साधुवाद लेकिन दिल के दर्पण में इतनी आग क्यों
---योगेन्द्र मौदगिल

शोभा said...

सुन्दर कल्पना । कल्पना बस यूँ ही ऊँचाइयों को छूती रहे। बधाई

रंजू भाटिया said...

सुंदर बहुत खूब जी ..यह अंदाज भी आपका मोहिंदर जी

Chutki's Paradise said...

aapki kavita bahut hi badiya hai...aapne jis tarah shabdho ka prayog kiya hai woh bhi badiya..


Deepti