कसक



दर्द ने जब हद से बढ कर
दिल की गहराई में दूर कहीं
किसी अहसास को पाला होगा
उस घडी आंखों ने तेरी चुपके
आस का मोती ढाला होगा

मुस्कान होंठों की शिकन भर
और हंसी बेमानी चुभन भर
मैं बांटे फ़िरा जमाने भर में
बेवजह सौगात समझ कर
और तुमने तो आह को भी
बरसों होठों पर संभाला होगा

क्या पाया मैने भी सोचो तो
यूं अपनी हदों से निकल कर
वापस आ नहीं सकता फ़िर से
तुझ तक अब खुद चल कर
चुन लूं सभी फ़ूल और कलियां
उससे भी भला अब क्या होगा
तोड के एक बार जो बिखेरा था
वो प्यार फ़िर कहां से माला होगा

3 comments:

राजीव रंजन प्रसाद said...

मोहिन्दर जी,

चुन लूं सभी फ़ूल और कलियां
उससे भी भला अब क्या होगा
तोड के एक बार जो बिखेरा था
वो प्यार फ़िर कहां से माला होगा

बेहतरीन रचना, बधाई स्वीकारें...

***राजीव रंजन प्रसाद

शोभा said...

मोहिन्दर जी
सुन्दर कविता । दिल की गहराइयों से लिखी गई है-
क्या पाया मैने भी सोचो तो
यूं अपनी हदों से निकल कर
वापस आ नहीं सकता फ़िर से
तुझ तक अब खुद चल कर
चुन लूं सभी फ़ूल और कलियां
उससे भी भला अब क्या होगा
तोड के एक बार जो बिखेरा था
वो प्यार फ़िर कहां से माला होगा
अति सुन्दर।

Anonymous said...

bahut he sunder kaivta