कोई नहीं है



जिन्होंने संजोये और पाले लाखों सपने
आज उन भीगे आबशारों का कोई नही है

जिसमें बसा करता था कभी एक घर
आज उन टूटी दीवारों का कोई नहीं है

जिनका साथ पा कर चढी ऊंची मिनारें
आज उन कमजोर सहारों का कोई नहीं है

जहां पर खेलती रौनकें थी जमाने भर की
आज उन उजडे किनारों का कोई नहीं है

कभी वक्त था जिनकी ठोकरों में रुलता
आज उन वक्त के मारों का कोई नहीं है

जिनकी उंगली थाम बचपन जवानी में बदला
आज उन्हीं बुलन्द बुजुर्गवारों का कोई नहीं है

3 comments:

शोभा said...

मोहिन्दर जी
बहुत ही भाव-पूर्ण कविता है-
कभी वक्त था जिनकी ठोकरों में रुलता
आज उन वक्त के मारों का कोई नहीं है

जिनकी उंगली थाम बचपन जवानी में बदला
आज उन्हीं बुलन्द बुजुर्गवारों का कोई नहीं है
सच का दर्शन हुआ है पढ़कर। बधाई

Udan Tashtari said...

सत्य है!

राजीव रंजन प्रसाद said...

जिनकी उंगली थाम बचपन जवानी में बदला
आज उन्हीं बुलन्द बुजुर्गवारों का कोई नहीं है

हर शेर बेहतरीन है।

***राजीव रंजन प्रसाद