जज्वा-ऐ-दिल


पता मुझसे कहीं, अपने घर का खो गया
जागते हुए शहर को जाने ये क्या हो गया

ताल्लुकों में, वो पहले सी, गर्मजोशी नहीं
सारे रिश्तों का अहसास पत्थर सा हो गया

जो पूछा करता था मुझसे मंजिलों का पता
आज राहों में, वो शक्स, मेरा रहवर हो गया

मैंने मांगे कहां, किसी से, वफ़ाओं के सिले
क्यों खैरातों का मुझ पर, यह सिला हो गया

आज हस्ती बन गई मेरी, उस सूखे पेड सी
जो इक ऊपर चढी बेल से फ़िर हरा हो गया

फ़ूल से भी हल्का समझ मैने संभाला जिन्हें
वक्त पर उन सब के लिये एक बोझा हो गया

आज मांगू भी तो क्या मांगू, झुक सजदे में मैं
जीने का वो जज्वा, इस दिल से जुदा हो गया

6 comments:

राजीव रंजन प्रसाद said...

रचना बेहतरीन है, खासकर ये शेर:

आज हस्ती बन गई मेरी, उस सूखे पेड सी
जो इक ऊपर चढी बेल से फ़िर हरा हो गया

***राजीव रंजन प्रसाद

शोभा said...

मोहिन्दर जी बहुत अच्छी गज़ल है। इसको अपनी आवाज़ में रिकार्ड करिए।

mehek said...

bahut hi khubsurat mubarak baat swikare

mehek said...

bahut hi khubsurat mubarak baat swikare.

Anonymous said...

bahut he sunder rachana
bahut he behtarin

सुनीता शानू said...

बदल जाते हैं वक्त पर अपने भी पराये भी,
क्या हुआ जो फ़ैसला ये एक तरफ़ा हो गया
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