कोयला आज भी हूं


हमसे कब आ के हाले दिल पूछा तुमने
और हमने भी किसी को बताया ही नहीं

दर्द के इस दिल पर लगे थे पहरे इतने
बाद तेरे इस जानिब कोई आया ही नहीं

दुशमनी हमसे प्यार में ऐसी निभाई तुमने
फ़िर किसी को कभी दोस्त बनाया ही नहीं

दिले-नादान को भा गई खिजायें इस कदर
फ़िर बहारों में भी कोई गुल खिलाया ही नहीं

"मोह"सुलगा और सब ने धुंआ भर देखा
कोयला आज भी हूं राख बन पाया ही नहीं

3 comments:

रंजू भाटिया said...

दर्द के इस दिल पर लगे थे पहरे इतने
बाद तेरे इस जानिब कोई आया ही नहीं

वाह बहुत खूब मोहिंदर जी ...खूब लिखा है आपने ..

रंजू भाटिया said...

दर्द के इस दिल पर लगे थे पहरे इतने
बाद तेरे इस जानिब कोई आया ही नहीं

दुशमनी हमसे प्यार में ऐसी निभाई तुमने
फ़िर किसी को कभी दोस्त बनाया ही नहीं

वाह बहुत खूब लिखा है मोहिंदर जी आपने

शोभा said...

मोहिन्दर जी
बहुत ही सुन्दर गज़ल लिखी है। एक-एक शेर दिल की गहराई से निकला प्रतीत हो रहा है। बधाई स्वीकारें।