नदिया के किनारे दो

अधिक नहीं बस तनिक सा है
अन्तर सोच में हम दोनों की

तुम भाग्य के पुराण पढो
मैं कर्मों के लेख लिखूं
तुम धारो तिलक चंदन का
मैं माटी का अभिषेक लिखूं
तुम बात करो पकवानो की
मैं खाली हांडी का सेक लिखूं
तुम विचरो नभ नील तलक
मैं झुकते माथे की टेक लिखूं

हर डगर पर साथ-साथ होंगे हम
ज्यों किसी नदिया के किनारे दो

7 comments:

रंजू भाटिया said...

हर डगर पर साथ-साथ होंगे हम
ज्यों किसी नदिया के किनारे दो
बहुत सुंदर बात कही नदी के दो किनारे साथ साथ चलते हुए भी जुदा .पर साथ तो है यही बहुत है ..बढ़िया

शोभा said...

वाह बहुत अच्छा लिखा है। सोच का अन्तर बहुत सरलता से मिटा दिया। बधाई।

mehek said...

gazab badi sundar kavita hai,shabd ,bhav bahut khubsurat.

राज भाटिय़ा said...

बहुत ही सुंदर लिखा आप ने, बहुत सुंदर भाव लिये है आप की यह कविता.
धन्यवाद

Udan Tashtari said...

वाह!! सधी हुई रचना के साथ उम्दा विचार. बधाई.

सुशील छौक्कर said...

वाह क्या बात है। बहुत खूब।

seema gupta said...

अधिक नहीं बस तनिक सा है
अन्तर सोच में हम दोनों की
" हाँ और यही तनिक सा अंतर ही दो किनारों के बीच जन्मो जन्मो की दूरियों का कारण है.....साथ साथ युगों से मगर न मिलने के अबिशाप से ग्रस्त .....आपकी ये रचना.....जीवन के एक गहरे रहस्य को भाव समेटे है.."

Regards