पल्लवित होते फ़लतरू पर
कहिये किस का अधिकार हो
एक स्वप्न जिसने किसी को
इक बीज रोपण को कहा ?
या अधिकार है उस धरा का
जिसने स्वयं में समाहित कर
शुष्क बीज को जीवन दिया ?
उस बूंद का क्या जो रही सींचती
अपना अस्तित्व माटी में मिला ?
या फ़िर उस मलय का जो
शीत-ऊष्ण साथ ले अपने बहा ?
उस बाड का जिसने नव अंकुरित को
हर बाहरी आप्पति से रखा बचा ?
उन हाथों का जो रहे उसे सहेजते
आसपास उगती खतपतवार को हटा ?
अब तो वो पक्षी भी
हक अपना जताने लगे
आपात काल में जिन्होंने
इसपर नीड लिये थे बना
पेड की किसको पडी
बस उस डाली पर आंख है
जिस डाली में लोच है
जिसमे फ़ल है लगने लगा
है करबद्ध प्रार्थना सब
पत्थर फ़ैंकने वालों से मेरी
रितुऐं और भी आयेंगी
यदि अस्तित्व इस तरू का रहा.
4 comments:
बहुत सुन्दर काव्य
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1. विज्ञान । HASH OUT SCIENCE
2. चाँद, बादल और शाम
3. तकनीक दृष्टा
अत्यन्त सुंदर! इस बेहतरीन काव्य के लिए बधाई!
मोहिन्दर कुमार जी,
प्रश्न सार्थक है फिर भी यक्षप्रश्न सा है। सभी इसके उत्तर को जानते हुये भी कि अंततः तरू(वृक्ष) का क्या होगा? कोई अपना अधिकार नही खोना चाहता है।
अच्छी कविता के लिये साधुवाद :-)
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
mohinder ji , namanskar , bahut acchi kavita , ek shshak approch towards life... aapne bahut sahi baat kahi hai ...shabd khud bayaan kar de rahe hai is sacchai ko .. bahut badhai ..
vijay
pls read my new poem "झील" on my poem blog " http://poemsofvijay.blogspot.com
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