अक्सर ऐसा होता है कि चलते फ़िरते, उठते बैठते कुछ ख्यालात उभर आते हैं जो शायद अधुरे होते हुये भी अपने आप में पूरे होते हैं... उनमें चाह कर भी और कुछ जोड पाना मुमकिन नहीं हो पाता. ऐसे ही कुछ ख्यालात पेश हैं
सरपर्स्ती में कांटों की रहती हो
बुरा न मानो तो तुमको गुलाब कह दूं मैं
देख कर तुम को नशा सा छाता है
बुरा न मानो तो तुमको शराब कह दूं मैं
समन्दर की रेत पर
पांवों के निशां
बहती हवा के कांधों पर
हसरतों के वयां
मरहले प्यार के दुशवार हो गये
फ़ूल जो चुने सभी खार हो गये
ख्वाबों में बिछाई जो रेशमी चादर
हकीकत में वो उलझे तार हो गये
चांदनी चांद की कहां
एक कर्ज है धरती का उस पर
जिसे वह स्वंय रात दिन
सूरज की तपिश में जल कर
किश्तों में रात को लौटाता है
वक्त ने फ़िर मुहब्बत की दास्तान लिखी
दर्द की कलम और आंसुओं की सियाही से
दरबदर इक बदन ढूंढता है रुह को अपनी
फ़िर कोई बादल टूट कर रोया तबाही पे
4 comments:
गहरे भाव से सराबोर रचना ... धन्यवाद मोहिंदर जी .
चांदनी चांद की कहां
एक कर्ज है धरती का उस पर
जिसे वह स्वंय रात दिन
सूरज की तपिश में जल कर
किश्तों में रात को लौटाता है
बहुत सुन्दर , इन पंक्तियों का जवाब नहीं
चांदनी चांद की कहां
एक कर्ज है धरती का उस पर
जिसे वह स्वंय रात दिन
सूरज की तपिश में जल कर
किश्तों में रात को लौटाता है
ख़ूबसूरत भाव !
चांदनी चांद की कहां
एक कर्ज है धरती का उस पर
जिसे वह स्वंय रात दिन
सूरज की तपिश में जल कर
किश्तों में रात को लौटाता है
behad sundar bhav.
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