सोचता हूं पूछ ही लूं तुम से


यूं तो
अधिकार तनिक नहीं
फ़िर भी
सोचता हूं कि पूछ ही लूं तुम से

किस संकल्प हेतू
ढोया तुमने
यह एकेलापन
स्वपनों का होम कर
प्रतिकार में हाथ जलाये

सोचता हूं कि पूछ ही लूं तुम से

क्या है जिसे
उर उमंग बना
हंस लेती हो
किस तरह
रेत के सपाट तल पर
भावनाओं की
नाव खेती हो

सोचता हूं कि पूछ ही लूं तुम से

क्यों नैनों के द्वार पर
लगा पलकों का पहरा है
कौन राज
ह्र्दय में
पैठ मारे गहरा है

सोचता हूं कि पूछ ही लूं तुम से

किंचित फ़ूलों का मौसम
अभी नहीं बीता है
अंकुर बिम्बों का
आज भी जीता है
हरित है
चाहे पलाश नहीं
जीवन्त राहे हैं
भविष्य की सोच कर
वर्तमान हताश नहीं

सोचता हूं कि पूछ ही लूं तुम से

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