क्यूं रुका मैं,
क्यूं मुडा मैं
किंचित थी मन में
कोई आस सी
देखा जो तेरा चेहरा खिलता हुआ
जैसे फ़ूलों भरी डाली हो
अमलतास की
मुस्कान तेरे होठों पर थी खेलती
ज्यों भंवरा हो फ़ूल पर मंडरा रहा
आंखें बोलती सी लगी जैसे
कोई प्रीत का गीत हो गा रहा
परन्तु यह सब स्वप्न ही था
सब चित्र थे
मृगतृष्णा के आभास से
निद्रा से जब नयन खुले
अश्रुओं से भीगी थी पलकें
होठ सूखे हुये थे प्यास से
झाँक कर देखा जो खिडकी से बाहर
धरा सुनहरी फूलों से अटी पडी थी
धीरे धीरे दल झर रहे थे
मेरी कामना के खिलते हुये
अमलतास से
2 comments:
मेरी कामना के खिलते हुये अमलतास--- बहुत सुन्दर कविता-- कामनायेम भी अमलतास की तरह ही लुभाती हैं। आभार।
this poem is realy nice and lovable to read sir.kindly if its possible do i add u sir so that i get more chance to read ur shayari and blogpages.
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