प्रेम

प्रेम को परिभाषित करना अत्यन्त कठिन कार्य है...
मैंने एक प्रयास किया है कहां तक सफ़ल है... आप बतायेंगे.

प्रेम है
इक विरहन का आंसू
झरता यादों की शाम ढले

प्रेम है
बनजारे की गाडी का पहिया
उबड खाबड हर दिन राह चले
...
प्रेम है
कल्पनाओं की क्यारी जिसमें
निस दिन रंगबिरंगे फ़ूल खिलें

प्रेम है
शाम के धुंधलके की परछांई
गाहे वगाहे जो मन को छले

प्रेम है
वक्त के हाथों में बेरहम चाबुक
बिखरें स्वपन सब जब ये चले

प्रेम है
पूजा की थाली का जगमग दीपक
जिसमें आस - विश्वास की लौ जले

मोहिन्दर कुमार
 
 
 

2 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

प्रेम को बखूबी परिभाषित किया है ।

ओंकारनाथ मिश्र said...

समग्र परिभाषा है. बहुत सुन्दर.