बदरंग दीवार - कविता



लेटे लेटे जब भी
निगाह जाती है
सामने सीलन से
बदरंग हुई दीवार पर
हर एक धब्बे से
अलग अलग
चेहरे उभरते हैं

ऐसा लगता है
जैसे मेरा जह्न ही
एक पोस्टर बन कर
दीवार पर टंगा है

इसी खातिर
इस दीवार को
रंगवाता नहीं मैं

नहीं चाहता कि
मेरा जह्न
रंगीन कफ़न ओढ
सारे चेहरे निगल जाये

और फ़िर
देखने और सोचने को
कुछ बचे ही न.

मोहिन्दर कुमार

No comments: