कुल, जाति और वर्ण - कविता


किसके बस में है इस धरा पर अवतरण

चयनियत नहीं होते कुल,  जाति या वर्ण

भाग्य से मिलते या कहो बंदर बांट से

आये नहीं हो उच्च कुल में तुम छांट के

क्यूं किसी को हेय बना कर हो लीकते

लांछणा के शब्द किसी पर हो पीकते

नाम ही काफ़ी है पहचान के प्रयाय से

उपनाम उपजे न जाने किस अध्याय से

हैं सब बराबर तो सभी का एक मंच हो

मित्रता और सम्बंधों में न फ़िर प्रपंच हो

ऐसे उडो, जैसे नभ में हंसों की पांत हो

ऐसे रहो, जैसे सभी की एक ही जात हो

मोहिन्दर कुमार

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