बिखरती पहचान - कविता

अन्जान सफ़र का था वो राही

कौन सी मंजिल थी उसने चाही

ये कौन सुझाये

कहां से लाये

वो कसक

वो बैचेनी

वो लाचारी

या वो आवारापन

जो उसकी आदत से हो बाबस्ता

उसे रुकने नहीं देता

उसे बैठने नहीं देता

उसे कहने नहीं देता

क्या है उसके मन की गहराई में

किसकी तलाश है उसे अमराई में

और फ़िर एक दिन

सिर्फ़ एक खबर

क्या यही उसकी मंजिल थी

क्या यह सफ़र के बाद का सदमा है

या फ़िर सफ़र के शुरुआत का गम

कौन जाने वो लौटेगा या नहीं

और गर लौट भी आया तो

वह "वही" होगा या भी नहीं.

कौन जाने.......

मोहिन्दर कुमार

1 comment:

Rajesh Kumari said...

आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार ८ /७ /१ ३ को चर्चामंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है ।