बचपन में जो पढा
दो और दो चार
एक और एक ग्यारह
वह तर्क संगत था
परन्तु जीवन में जब
वही एक और एक
अपने तर्को की सीढी चढ
अपना प्रभुत्व जताते हैं
कंधे से कंधा मिला चलने वाले
हर बात में अपनी टांग अडाते हैं
तब विकास विघ्टन बन जाता है
घर की चूलें तक हिल जाती हैं
द्वार में पडी दरारों से लोग झांकते हैं
अपनी इच्छानुसार कीमत आंकते हैं
सिंहों की टकरार में भेडिये लाभ उठाते हैं
जीवनदायी मूल्यों पर सेंध लगा पाते हैं
एक की हानि दूसरे का घाटा न बन जाये
जितनी जल्दी ये बात समझ में आ जाये
2 comments:
sarthak abhivyakti .aabhar
शानदार!!
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