नव जीवन का उदग्म



समय़ सब कुछ बदल देता है
चमकते आईने धुन्धले पड जाते हैं
दमकते चेहरे झुर्रियों से पट जाते हैं
बालों की सियाही
आंखों की बिनायी
गालों की लाली को
बीतते पलों कि दीमक चाट जाती है
अपने चेहरे का अक्स
पहचान में नहीं आता
सूर्ख रंग फीके से लगने लगते हैं
सोचता हूं रात दिन की चक्की में पिसते पिसते
आदमी क्या से क्या हो जाता है
खुद को भी पहचान नही पाता है
मिटती पहचान निरन्तर परिवर्तन
ही शायद
नवजीवन का
उदग्म है

मोहिन्दर

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