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बूंदें
सुन प्यासी धरती की पुकार
घटा से जुदा होने को
तरसती हैं ये बूंदें
सावन की फुहार
भादों की झडी बन
बरसती हैं ये बूंदें
इक बूंद का प्यासा है
चातक कहीं मेरा
पी जाये अगर सीप तो
मोती में बदलती हैं ये बूंदें
इक बूंद की वैसे तो
कुछ नही औकात
मिल जायें आपस में तो
सागर सी उफनती हैं ये बूंदें
बरसात का मौसम है
और हुस्न है निखरा
जुलफों से निकल कर
गालों पर ठहरी हैं ये बूंदें
मोहिन्दर
1 comment:
जीवों की तड़प उनकी प्यास हैं ये बूंदे…
बूंदों मे है सागर और लहरो में भी हैं बूंदे>>।सुंदर!!!
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