फितरते आदमी



कितने हैं सवाल मगर मिलता नही जबाब
क्यूं फलसफे की बातें करता है आदमी
इक मज़ार जिसमें कई बेगुनाह और मुमताज दब गयी
खुश हो कर उस "ताज" को तकता है आदमी

सब को शिकायत जमाने के चलन से है
खुद भी तो वही चालें चलता है आदमी
अब भरोसे के काबिल कहां आदमी की कौम
घडी भर में गिरगिट सा रंग बदलता है आदमी

जिनसे रहा खुद को जिन्दगी भर गुरेज़
वही सब नसीहतें दूसरों को करता है आदमी
जिसका मलाल दिल में हर किसी को है
खुद भी वही सुलूक दूसरों से करता है आदमी

जिस को सभी जाने अमल में लाता नही कोई
उस इलम की खातिर कहां कहां फिरता है आदमी
सब जानते हैं कुछ नही छिपता उसकी निगाह से
फिर भी गुनाह करने से कहां डरता है आदमी

कैसे मिले सकून आखिरी मुकाम पर
सिर्फ दौलत और शौहरत की लिये खटता है आदमी
चन्द धुन्धली यादों के सिवा कुछ लगता नही है हाथ
आखिर में जब हिसाब करता है आदमी

मोहिन्दर

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