काश मैं बन पाता
नजर, नजारो के लिये
चमन, बहारों के लिये
चमक, सित्तारों के लिये
दवा, बिमारों के लिये
लहर, किनारों के लिये
मगर सोती आंखों से देखे हुये सपने
रोती हुई आखों के सपने बन रह गये
एक एक कर
पेट की भट्टी में
गृहस्ती की चक्की में
वक्त की आंधियों के साथ बह गये
मन का पथरीला आक्रोश
बूंद बूंद पानी बन पिघल गया
सपनों पर लगाम लगा
हवा में उडता चित
फिर किसी छोटी सी खुशी से बहल गया
जिसे झुकना नहीं
टूटना मंजूर था वही शक्स
कमान सा दोहरा हो
जरुरतों की रस्सी से कस गया
काश में बन पाता .....
मोहिन्दर
4 comments:
मोहिन्दर जी रचना के भाव बहुत अच्छे हैं। जैसा कि आपने सलाह माँगी है उस हिसाब से कुछ कहना चाहूँगी कि आप थोड़ा सा वर्तनी की अशुद्धियों पर भी ध्यान दें उसके लिये आप हिन्दी शब्दकोष का सहारा ले सकते हैं बुरा मत मानियेगा :):):)
रचना अच्छी लगी, बधाई.
सामयिक भूमि को अच्छे से कुरेदा है…।
कविता अपने पूर्ण रूप में संदेश के पिटारे को
खोल चुकी है…।बधाई!!
जिसे झुकना नहीं
टूटना मंजूर था वही शक्स
कमान सा दोहरा हो
जरुरतों की रस्सी से कस गया
काश में बन पाता .....
yahee jeevan kaasatya hai.
bahut sundar
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