मन का मर्म


निष्कंटक पथ पर चलने वाले
तेरे तलवों में कोई घाव नही है
दिन भर खट कर भूखे सोना
वाध्यता है मेरी चाव नही है

क्षुधाग्नि में अधिक वेदना
दुखते पांव के छालों से
भूत भविष्य वर्तमान अपना
निमज्जित विष के प्यालों से

निर्धन व धनवान के मध्य न कोई सेतू
संयम बना केवल निर्धन हेतू
समाज परिवर्तन है मात्र सांकेतिक
मन में कोई अनुराग नही है

अन्तर अगम है बीच स्वर्ग रसातल
जीवन अपना सत्य का ठोस धरातल
हास्य की पूंजी पास नही है
है मन का मर्म यह उपहास नही है


मोहिन्दर

5 comments:

रंजू भाटिया said...

bahut khoob likha hai aapne ..

Divine India said...

सर्वप्रथम!!यह कृति बहुत अच्छी है…मन को विह्वल कर देती है…किंतु मैं आशाओं के पंख पर सवार होना चाहता हूँ…कुछ के लिए निश्चित ही समाज दोषी है पर कुछ के लिए वे स्वयं!!भारत का एक आदमी…को अगर ध्यान से देखे जो मेरे आसपास ही चलता फिरता नजर आता है…जो दिनभर बिना मेहनत के बस सुबह-शाम दो रोटी की व्यवस्था को मुकद्दर मानता है…वह और मेहनत नहीं करना चाहता…।

राजीव रंजन प्रसाद said...

मोहिन्दर जी,

आपका जवाब नहीं,बहुत ही सुन्दर रचना:

अन्तर अगम है बीच स्वर्ग रसातल
जीवन अपना सत्य का ठोस धरातल
हास्य की पूंजी पास नही है
है मन का मर्म यह उपहास नही है

*** राजीव रंजन प्रसाद

परमजीत सिहँ बाली said...

मोहिन्दर जी बहुत सुन्दर भावो को दर्शाती आप की यह रचना है। बहुत पसंद आई।

Udan Tashtari said...

वाह! बहुत खूब मोहिन्दर भाई!!