ज्वलन्त ज्वालामुखी


अन्तर्मन के गर्त में
सिमटे पडे हैं
ज्वलन्त विचारों के ज्वालामुखी
कुलीनता, परम्परा, कर्तव्य, निष्ठा
के अंकुश तले

किन्तु भीरु नहीं मैं
पराजित नही मैं

जानता हूं स्थायी स्तम्भ नही मैं
केवल दीमक का घर बन रह गया हूं
परन्तु अभी अस्तित्व है मेरा

टूटा नही मैं
अभी बिखरा नही मैं
अन्तर्मन के गर्त में
सिमटे पडे हैं
ज्वलन्त विचारों के ज्वालामुखी

मोहिन्दर

3 comments:

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

मोहिन्दर जी


अन्तर्मन के गर्त में
सिमटे पडे हैं
ज्वलन्त विचारों के ज्वालामुखी.


यही ज्वालामुखी तो हैं आपकी सशक्त लेखनी के आधार स्तम्भ.

बधाई
द्विजेन्द्र द्विज

Udan Tashtari said...

बहुत जानदार/दमदार रचना, बहुत बधाई.

नववर्ष मंगलमय हो.

anuradha srivastav said...

विचारों के ज्वालामुखी ही जीवनपथ के पथ-प्रदर्शक है। उत्तम...........