गीली लकडी

मै शायरी लिखता हूं
अखबार नही लिखता
इक बार जो लिखता हूं
हर बार नही लिखता

मुझे दर्द की शिद्द्त का
एहसास मुक्म्मिल है
जिस्म तो बिकते हैं
दिले-गुब्बार नही बिकता

है लाख गमें मौजूं
हैं लाख गमें उनवां
यह दिल का मौसम है
इकसार नही टिकता

न अपनी मर्जी से
न दुनिया के कहने पर
यूंही कटती है उमर सारी
यह वक्त नही रुकता

गम हो, दिल हो या चाहे मुहब्बत
सब गीली लकडी हैं
और गीली लकडी से
चुल्हा तो नही जलता

9 comments:

Anonymous said...

अच्छा लगा यह पढ़ना-
गम हो, दिल हो या चाहे मुहब्बत
सब गीली लकडी हैं
और गीली लकडी से
चुल्हा तो नही जलता

बधाई।लिखते रहिये। चर्चा भी होगी। हम हैं न!

Anonymous said...

है लाख गमें मौजूं
हैं लाख गमें उनवां
यह दिल का मौसम है
इकसार नही टिकता

गम हो, दिल हो या चाहे मुहब्बत
सब गीली लकडी हैं
और गीली लकडी से
चुल्हा तो नही जलता
.. ये सब्सी अच्छी पंकतियां लगी.. इनके भाव दिल तक पहुंचे

ePandit said...

वाह बढ़िया गजल, अब तो आपका चिट्ठा सीरियसली पढ़ना पढ़ेगा।

राकेश खंडेलवाल said...

इज़हारे खयालां जो इस बार किया जाहिर
चिट्ठे पे हमें ऐसा, हर बार नहीं मिलता

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया लिख रहे हैं आप, बधाई.

Pratyaksha said...

बहुत बढिया !

रंजू भाटिया said...

न अपनी मर्जी से
न दुनिया के कहने पर
यूंही कटती है उमर सारी
यह वक्त नही रुकता
bahut sundar ehsaaso ko likha hai aapne

गम हो, दिल हो या चाहे मुहब्बत
सब गीली लकडी हैं
और गीली लकडी से
चुल्हा तो नही जलता
bahut khoob ....

Anonymous said...

डा. रमा द्विवेदी



बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति है.....ढेर सारी बधाई और शुभकामनाएं.....सस्नेह...

डा. रमा द्विवेदी

Dr.Bhawna Kunwar said...

आपकी गज़ल बहुत अच्छी लगी बधाई। यूँ ही लिखते रहियेगा।